अल्लाह ने अपने रसूल को अनुमति दी थी, तुम्हें अनुमति नहीं दी है। वैसे भी, मुझे केवल दिन की एक घड़ी के लिए अनुमति दी थी।…

अल्लाह ने अपने रसूल को अनुमति दी थी, तुम्हें अनुमति नहीं दी है। वैसे भी, मुझे केवल दिन की एक घड़ी के लिए अनुमति दी थी। आज वह उसी तरह हराम है, जैसे कल थी। अतः, जो उपस्थित है, वह उसे पहुँचा दे, जो उपस्थित नहीं है।

अबू शुरैह- खुवैलिद बिन अम्र खुज़ाई अदवी -रज़ियल्लाहु अन्हु- का वर्णन है कि उन्होंने अम्र बिन सईद बिन आस से, (जब वह मक्का की ओर सैन्यदल भेज रहा था) कहाः ऐ सालार! मुझे एक हदीस सुनाने की अनुमति दीजिए, जो अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने मक्का विजय के दूसरे दिन सुब्ह खड़े होकर कही थी और उसे मेरे कानों ने सुना था, मेरे दिल ने याद कर लिया था और मेरी आँखों ने वह दृश्य देखा था, जब आपने इसे बयान करते समय अल्लाह की प्रशंसा करने के बाद कहा थाः मक्का को अल्लाह ने हराम क़रार दिया है, लोगों ने हराम करार नहीं दिया है। अतः, किसी व्यक्ति के लिए, जो अल्लाह और आख़िरत पर ईमान रखता हो, हलाल नहीं है कि यहाँ रक्तपात करे और इसका कोई पेड़ काटे। फिर यदि कोई अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाह अलैहि व सल्लम) के युद्ध को मिसाल बनाकर उसे उचित ठहराने का प्रयास करे तो उससे कह देना कि अल्लाह ने अपने रसूल को अनुमति दी थी, तुम्हें अनुमति नहीं दी है। वैसे भी, मुझे केवल दिन की एक घड़ी के लिए अनुमति दी थी। आज वह उसी तरह हराम है, जैसे कल थी। अतः, जो उपस्थित है, वह उसे पहुँचा दे, जो उपस्थित नहीं है। अबू शुरैह से पूछा गया कि उसने आपको क्या उत्तर दिया? तो उनका कहना था कि उसने कहाः ऐ अबू शुरैह! मैं यह बात आपसे अधिक जानता हूँ। हरम किसी अवज्ञाकारी, रक्तपात करके और फ़साद मचाकर भागने वाले को शरण नहीं देता।

[सह़ीह़] [इसे बुख़ारी एवं मुस्लिम ने रिवायत किया है।]

الشرح

जब यज़ीद बिन मुआविया की ओर से नियुक्त मदीने के अमीर अम्र बिन सईद बिन आस ने, जो अशदक़ के नाम से प्रसिद्ध था, अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर (रज़ियल्लाहु अंहुमा) से युद्ध के लिए मक्का की ओर सेना भेजने का इरादा किया, तो उसे समझाने-बुझाने के लिए उसके पास अबू शुरैह ख़ुवैलिद बिन अम्र ख़ुज़ाई (रज़ियल्लाहु अंहु) आए। चूँकि सामने वाला व्यक्ति ख़ुद को एक बड़ा आदमी समझता था, इसलिए अबू शुरैह (रज़ियल्लाहु अंहु) ने हिकमत और समझदारी से काम लेते हुए उससे बड़ी नरमी से बात की, ताकि बात मानने की संभावना अधिक बन सके और कोई अप्रिय घटना भी न घटे। उन्होंने सबसे पहले अम्र बिन सईद जो सेना भेजना चाहता था, उसके बारे में बात करने की अनुमति माँगी और बताया कि वह जो हदीस सुनाने जा रहे हैं, उसके सही होने पर उन्हें पूर्ण विशवास है, क्योंकि उनके कानों ने उसे सुना है, दिल ने सुरक्षित रखा है और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) जब यह बात कह रहे थे, उस समय उनकी आँखों ने आपको देखा है। इतना सुनने के बाद अम्र बिन सईद ने उनको बात करने की अनुमति दे दी। चुनांचे अबू शुरैह ने कहा : नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने मक्का विजय के दिन सुबह के समय अल्लाह की स्तुति एवं प्रशंसा करने के बाद फ़रमाया : मक्का को अल्लाह ने उसी दिन हराम क़रार दिया है, जिस दिन आकाश एवं धरती की रचना की है। इसलिए वह सदा सम्मान एवं आदर का पात्र रहा है। उसे लोगों ने चरागाहों और घाटों की तरह अस्थायी रूप से हराम क़रार नहीं दिया है। अब, जब यह पता चल गया कि वह हमेशा से सम्मान एवं आदर का पात्र रहा है और उसे यह दरजा ख़ुद अल्लाह ने दिया है, तो किसी इनसान के लिए, जो अल्लाह और आख़िरत के दिन पर विश्वास रखता हो और अपने ईमान को सुरक्षित रखना चाहता हो, हलाल न होगा कि वहाँ खून बहाए और उसके पेड़ काटे। हाँ, यदि कोई मक्का विजय के दिन मेरे युद्ध को प्रमाण मानकर ख़ुद वहाँ युद्ध करने की योजना बनाए, तो उससे कह दो कि तुम्हारा मामला अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) जैसा नहीं है। अल्लाह ने आपको अनुमति दी थी, तुम्हें नहीं दी है। एक बात और भी है। वहाँ सदा के लिए युद्ध की अनुमति नहीं दी गई थी। ज़रूरत के अनुसार बस कुछ देर के लिए अनुमति दी गई थी और फिर वह दोबारा पहले की तरह हराम हो गया। अतः, जो लोग उपस्थित हैं, वे उन लोगों को मेरी बात पहुँचा दें, जो उपस्थित नहीं हैं। चूँकि मैं उस दिन मौजूद था और आप मौजूद नहीं थे, इसलिए मैंने आपको नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का संदेश पहुँचा दिया। इतना सुनने के बाद लोगों ने अबू शुरैह से पूछा कि अम्र ने आपको क्या उत्तर दिया? तो उन्होंने कहा कि उसने उत्तर दिया : ऐ अबू शुरैह मैं इस मामले को आपसे अधिक समझता हूँ। हरम किसी अवज्ञाकारी और ग़द्दारी करके भागने वाले को शरण नहीं देता। इस तरह, उसने हदीस के मुक़ाबले में अपना मत पेश कर दिया और अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर (रज़ियल्लाहु अंहुमा) से युद्ध के लिए सेना भेजने की योजना से पीछे हटने की बजाय उसपर डटा रहा।

التصنيفات

भलाई का आदेश देने तथा बुराई से रोकने के आदाब