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अल्लाह के नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने हर उस वस्तु में शुफ़आ़ (साँझे की संपत्ति में एक साझीदार के अपना हिस्सा…
अल्लाह के नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने हर उस वस्तु में शुफ़आ़ (साँझे की संपत्ति में एक साझीदार के अपना हिस्सा बेच देने की स्थिति में दूसरे साझीदार अथवा साझीदारों के लिए खरीदने वाले को उसकी क़ीमत देकर उसे प्राप्त करने का अधिकार) रखा है (तथा एक रिवायत के अनुसार शुफ़आ़ का निर्णय दिया है), जो बाँटी न गई हो। परन्तु जब सीमाएँ स्थापित हो जाएँ और रास्ते निकाल दिए जाएँ तो शुफ़आ़ नहीं है।
जाबिर बिन अब्दुल्लाह (रज़ियल्लाहु अनहुमा) कहते हैं कि अल्लाह के नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने हर उस वस्तु में शुफ़आ़ (साझे की संपत्ति में एक साझीदार के अपना हिस्सा बेच देने की स्थिति में दूसरे साझीदार अथवा साझीदारों के लिए खरीदने वाले को उसकी क़ीमत देकर उसे प्राप्त करने का अधिकार) रखा है (तथा एक रिवायत के अनुसार शुफ़आ़ का निर्णय दिया है), जो बाँटी न गई हो। परन्तु जब सीमाएँ स्थापित हो जाएँ और रास्ते निकाल दिए जाएँ तो शुफ़आ़ नहीं है।
[सह़ीह़] [इसे बुख़ारी एवं मुस्लिम ने रिवायत किया है।]
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यह बुद्धिमत्तापूर्ण शरीयत आई ही इसलिए है कि सत्य और न्याय का बोलबाला हो तथा बुराई एवं अत्याचार का ख़ात्मा हो। यही कारण है कि चूँकि जायदादों में साझेदारी के कई नुक़सान सामने आते हैं तथा उसका झमेला लंबे समय तक बरक़रार रहता है और बँटवारा कर लेना भी कुछ आसान नहीं होता, इसलिए शरीयत ने साझेदार को शुफ़ा का हक़ दिया है। यानी जब किसी साझे की संपत्ति का एक साझेदार अपना हिस्सा बेच दे, तो दूसरे साझेदार को उसे उसकी वही क़ीमत देकर ख़रीदार से लेने का अधिकार है, ताकि साझेदारी की संभावित क्षति से बचा जा सके। लेकिन साझेदार को यह अधिकार उस समय तक प्राप्त होगा, जब तक साझे की संपत्ति का बटावारा न हो जाए, सीमाएँ न तय कर दी गई हों और रास्ते न निकाल दिए गए हों। अगर सीमाएँ निर्धारित कर दी गई हों, दोनों भागों को अलग कर दिया गया हो और रास्ते निकाल दिए गए हों, तो शुफ़ा का अधिकार प्राप्त न हीं होगा। क्योंकि अब साझेदारी की उस संभावित क्षति का भय नहीं रहा, जिसके कारण बेची हुई संत्ति को ख़रीदने वाले से लेकर साझेदार को देने का हुक्म दिया गया है।التصنيفات
शुफ़ा का अधिकार