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वह हजरे असवद के पास आए, उसे चूमा और कहाः मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि तू एक पत्थर है। न हानि पहुँचा सकता है और न लाभ दे…
वह हजरे असवद के पास आए, उसे चूमा और कहाः मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि तू एक पत्थर है। न हानि पहुँचा सकता है और न लाभ दे सकता है। यदि मैंने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को तुझे चूमते न देखा होता, तो मैं तुझे न चूमता।
उमर बिन ख़त्ताब (रज़ियल्लाहु अंहुमा) से रिवायत है कि वह हजरे असवद के पास आए, उसे चूमा और बोलेः मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि तू एक पत्थर है। न हानि पहुँचा सकता है और न लाभ दे सकता है। यदि मैंने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को तुझे चूमते न देखा होता, तो मैं तुझे न चूमता।
[सह़ीह़] [इसे बुख़ारी एवं मुस्लिम ने रिवायत किया है।]
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स्थान और समय इतने पवित्र और महान नहीं होते कि खुद उन्हीं की उपासना की जाए, बल्कि उनका सम्मान शरीयत के दायरे में रहकर किया जाएगा। यही कारण है कि उमर बिन खत्ताब (रज़ियल्लाहु अंहु) हजरे असवद के पास आए और हाजियों के बीच, जिन्हें मूर्ति पूजा छोड़े अभी ज़्यादा दिन नहीं गुज़रे थे, उसे बोसा दिया और यह स्पष्ट कर दिया कि उन्होंने इस पत्थर को बोसा देने और उसका सम्मान करने का काम अपनी ओर से नहीं किया है, अथवा इसलिए भी नहीं किया है कि उससे कोई लाभ या नुक़सान होने वाला है। बल्कि यह अल्लाह की इबादत का एक तरीका है, जिसे उन्होंने रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से सीखा है। उन्होंने आपको बोसा देते देखा, इसलिए आपके अनुसरण में बोसा दिया। इसमें न उनकी राय का दखल है, न यह कोई नया अमल है।