इमाम (शासनाध्यक्ष) के विरुद्ध विद्रोह

इमाम (शासनाध्यक्ष) के विरुद्ध विद्रोह

1- हमने अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से कठिनाई और आसानी में, चुस्ती और सुस्ती में और हमारे ऊपर तरजीह दिए जाने की अवस्था में भी सुनेंगे और अनुसरण करेंगे*। और इस बात पर बैअत की कि हम शासकों से शासन के मामले में नहीं झगड़ेंगे और जहाँ कहीं भी होंगे, हक़ बात कहेंगे और इस विषय में किसी निंदा करने वाले की निंदा की परवाह नहीं करेंगे।

2- "तुमपर ऐसे शासक नियुक्त हो जाएँगे, जिनके कुछ काम तुम्हें अच्छे लगेंगे और कुछ बुरे। ऐसे में जो (उनके बुरे कामों को) बुरा जानेंगे, वह बरी हो जाएँगे और जो खंडन करेंगे, वह सुरक्षित रहेंगे। परन्तु जो उनको ठीक जानेंगे और शासकों की हाँ में हाँ मिलाएँगे (वह विनाश के शिकार होंगे)।*" सहाबा ने कहा : ऐ अल्लाह के रसूल! क्या हम उनसे युद्ध न करें? फ़रमाया : "नहीं! जब तक वे नमाज़ पढ़ते रहें।"

3- “जो मुसलिम शासक के आज्ञापालन से इनकार करे और (मुसलमानों की) जमात से निकल जाए, फिर उसकी मृत्यु हो जाए तो ऐसी मृत्यु जाहिलियत वाली मृत्यु है*। जो ऐसे झंडे के नीचे लड़ाई लड़े जिसका उद्देश्य स्पष्ट न हो, अपने गोत्र के अभिमान की रक्षा के लिए क्रोधित होता हो, अपने गोत्र के अभिमान की रक्षा के लिए युद्ध करने का आह्वान करता हो, या अपने गोत्र के अभिमान की रक्षा को समर्थन देता हो, फिर इसी अवस्था में मारा जाए, तो यह जाहिलियत वाली मृत्यु है। जो मेरी उम्मत के विरुद्ध लड़ाई के लिए निकले तथा उम्मत के नेक व बुरे लोग सभी को मारे, न मोमिन को छोड़े और न अह्द (संधि) वाले के अह्द (संधि) का ख़याल करे, ऐसा व्यक्ति मुझसे नहीं और न मैं उससे हूँ।”