इबादतों पर आधारित फ़िक़्ह - الصفحة 2

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25- "आदमी का जमात के साथ नमाज़ पढ़ना बाज़ार या घर में नमाज़ पढ़ने की तुलना में (पुण्य के मामले में) बीस से अधिक दर्जा बढ़ा हुआ होता है*। इसका कारण यह है कि जब तुममें से कोई अच्छी तरह वज़ू करता है, फिर नमाज़ के इरादे से मस्जिद आता है और नमाज़ के सिवा कोई चीज़ उसे घर से नहीं निकालती, तो मस्जिद पहुँचने तक वह जो भी क़दम उठाता है, उसके बदले में उसका एक दर्जा ऊँचा होता है और एक गुनाह मिटाया जाता है। फिर जब मस्जिद में प्रवेश करता है तो जब तक नमाज़ उसे रोके रखती है, वह नमाज़ में होता है। तथा फ़रिश्ते तुममें से किसी के लिए रहमत की दुआ करते रहते हैं, जब तक वह उस जगह में होता है, जहाँ नमाज़ पढ़ी है। वे कहते रहते हैं : ऐ अल्लाह! इसपर दया कर, ऐ अल्लाह! इसे क्षमा कर दे और ऐ अल्लाह! इसकी तौबा कबूल कर। यह सिलसिला उस समय तक जारी रहता है, जब तक वहाँ किसी को कष्ट न दे, जब तक वहाँ उसका वज़ू टूट न जाए।"

39- "जिसने जुमे के दिन जनाबत (सहवास के बाद) का स्नान किया, फिर पहली घड़ी में मस्जिद की ओर चल पड़ा, उसने गोया एक ऊँट की क़ुरबानी दी;* जो दूसरी घड़ी में गया, उसने गोया एक गाय की क़ुरबानी दी; जो तीसरी घड़ी में गया, उसने गोया एक मेंढे की क़रबानी दी; जो चौथी घड़ी में गया, उसने गोया एक मुर्गी दान की और जो पाँचवीं घड़ी में निकला, उसने गोया एक अंडा दान किया। फिर जब इमाम निकल आता है, तो फ़रिश्ते उपस्थित होकर ख़ुतबा सुनने लगते हैं।"

80- “जो मुसलमान अच्छी तरह वज़ू करता है, फिर खड़े होकर मन तथा तन के साथ दो रकात नमाज़ पढ़ता है, उसके लिए जन्नत अनिवार्य हो जाती है।”* वह कहते हैं कि मैंने कहा : कितनी अच्छी बातें हैं। यह सुनकर एक व्यक्ति मेरे सामने से कहता है : इससे पहले की बातें इससे भी अच्छी थीं। मैंने देखा, तो वह उमर रज़ियल्लाहु अनहु थे। उन्होंने कहा : मैंने देखा है कि तुम अभी-अभी आए हो। आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने -इससे पहले- फ़रमाया था : “तुममें से जो भी सम्पूर्ण तरीक़े से वज़ू करता है और फिर कहता है : " أَشْهَدُ أَنْ لَا إِلَهَ إِلَّا اللهُ وَأَنَّ مُحَمَّدًا عَبْدُ اللهِ وَرَسُولُهُ" (मैं इस बात की गवाही देता हूँ कि अल्लाह के सिवा कोई सत्य पूज्य नहीं और मुहम्मद अल्लाह के बंदे तथा रसूल हैं) उसके लिए जन्नत के आठों दरवाज़े खोल दिए जाएँगे। वह जिससे चाहेगा, प्रवेश करेगा।”

100- "कोई स्त्री दो दिन की दूरी के सफर पर उस समय तक न निकले, जब तक उसके साथ उसका पति या कोई महरम (ऐसा रिश्तेदार जिसके साथ कभी शादी न हो सकती हो) न हो*, दो दिनों में रोज़ा रखना जायज़ नहीं है ; ईद-अल-फ़ित्र के दिन और ईद अल-अज़हा के दिन, सुबह की नमाज़ के बाद सूरज निकलने तक तथा अस्र की नमाज़ के बाद सूरज डूबने तक कोई नमाज़ नहीं है और इबादत की नीयत से सफ़र करके केवल तीन मस्जिदों की ओर जाना जायज़ है ; मस्जिद-ए-हराम, मस्जिद-ए-अक़सा और मेरी यह मस्जिद।"